Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


28
दोनों ने साथ चिलम पी। तब हीरा अपने घर गया, होरी अन्दर भोजन करने चला। धनिया रोष से बोली -- देखी अपने सपूत की लीला? इतनी रात हो गयी और अभी उसे अपने सैल से छुट्टी नहीं मिली। मैं सब जानती हूँ। मुझको सारा पता मिल गया है। भोला की वह राँड़ लड़की नहीं है, झुनिया! उसी के फेर में पड़ा रहता है। होरी के कानों में भी इस बात की भनक पड़ी थी, पर उसे विश्वास न आया था। गोबर बेचारा इन बातों को क्या जाने। बोला -- किसने कहा तुमसे? धनिया प्रचंड हो गयी -- तुमसे छिपी होगी, और तो सभी जगह चर्चा चल रही है। यह भुग्गा, वह बहत्तर घाट का पानी पिये हुए। इसे उँगलियों पर नचा रही है, और यह समझता है, वह इस पर जान देती है। तुम उसे समझा दो नहीं कोई ऐसी-वैसी बात हो गयी, तो कहीं के न रहोगे। होरी का दिल उमंग पर था। चुहल की सूझी -- झुनिया देखने-सुनने में तो बुरी नहीं है। उसी से कर ले सगाई। ऐसी सस्ती मेहरिया और कहाँ मिली जाती है। धनिया को यह चुहल तीर-सा लगा -- झुनिया इस घर में आये, तो मुँह झुलस दूँ राँड़ का। गोबर की चहेती है, तो उसे लेकर जहाँ चाहे रहे।
'और जो गोबर इसी घर में लाये? ' तो यह दोनों लड़कियाँ किसके गले बाँधोगे? फिर बिरादरी में तुम्हें कौन पूछेगा, कोई द्वार पर खड़ा तक तो होगा नहीं। '
'उसे इसकी क्या परवाह। '
'इस तरह नहीं छोड़ूँगी लाला को। मर-मर के पाला है और झुनिया आकर राज करेगी। मुँह में आग लगा दूँगी राँड़ के। '

सहसा गोबर आकर घबड़ाई हुई आवाज़ में बोला -- दादा, सुन्दरिया को क्या हो गया? क्या काले नाग ने छू लिया? वह तो पड़ी तड़प रही है। होरी चौके में जा चुका था। थाली सामने छोड़कर बाहर निकल आया और बोला -- क्या असगुन मुँह से निकालते हो। अभी तो मैं देखे आ रहा हूँ। लेटी थी। तीनों बाहर गये। चिराग़ लेकर देखा। सुन्दरिया के मुँह से फिचकुर निकल रहा था। आँखें पथरा गयी थीं, पेट फूल गया था और चारों पाँव फैल गये थे। धनिया सिर पीटने लगी। होरी पण्डित दातादीन के पास दौड़ा। गाँव में पशु-चिकित्सक के वही आचार्य थे। पण्डितजी सोने जा रहे थे। दौड़े हुए आये। दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो गया। गाय को किसी ने कुछ खिला दिया। लक्षण स्पष्ट थे। साफ़ विष दिया गया है; लेकिन गाँव में कौन ऐसा मुद्दई है, जिसने विष दिया हो; ऐसी वारदात तो इस गाँव में कभी हुई नहीं; लेकिन बाहर का कौन आदमी गाँव में आया। होरी की किसी से दुश्मनी भी न थी कि उस पर सन्देह किया जाय। हीरा से कुछ कहा-सुनी हुई थी; मगर वह भाई-भाई का झगड़ा था। सबसे जयादा दुखी तो हीरा ही था। धमकियाँ दे रहा था कि जिसने यह हत्यारों का काम किया है, उसे पाय तो ख़ून पी जाय। वह लाख ग़ुस्सैल हो; पर इतना नीच काम नहीं कर सकता। आधी रात तक जमघट रहा। सभी होरी के दुःख में दुखी थे और बधिक को गालियाँ देते थे। वह इस समय पकड़ा जा सकता, तो उसके प्राणों की कुशल न थी। जब यह हाल है तो कोई जानवरों को बाहर कैसे बाँधेगा। अभी तक रात-बिरात सभी जानवर बाहर पड़े रहते थे। किसी तरह की चिन्ता न थी; लेकिन अब तो एक नयी विपित्त आ खड़ी हुई थी। क्या गाय थी कि बस देखता रहे। पूजने जोग। पाँच सेर से दूध कम न था। सौ-सौ का एक-एक बाछा होता। आते देर न हुई और यह वज्रा गिर पड़ा। जब सब लोग अपने-अपने घर चले गये, तो धनिया होरी को कोसने लगी -- तुम्हें कोई लाख समझाये, करोगे अपने मन की। तुम गाय खोलकर आँगन से चले, तब तक मैं जूझती रही कि बाहर न ले जाओ। हमारे दिन पतले हैं, न जाने कब क्या हो जाय; लेकिन नहीं, उसे गमीर् लग रही है। अब तो ख़ूब ठंडी हो गयी और तुम्हारा कलेजा भी ठंडा हो गया। ठाकुर माँगते थे; दे दिया होता, तो एक बोझ सिर से उतर जाता और निहोरा का निहोरा होता; मगर यह तमाचा कैसे पड़ता। कोई बुरी बात होनेवाली होती है तो मति पहले ही हर जाती है। इतने दिन मज़े से घर में बँधती रही; न गमीर् लगी, न जूड़ी आयी। इतनी जल्दी सबको पहचान गयी थी कि मालूम ही न होता था कि बाहर से आयी है। बच्चे उसके सींगों से खेलते रहते थे। सिर तक न हिलाती थी। जो कुछ नाद में डाल दो, चाट-पोंछकर साफ़ कर देती थी। लच्छमी थी, अभागों के घर क्या रहती। सोना और रूपा भी यह हलचल सुनकर जग गयी थीं और बिलख-बिलखकर रो रही थीं। उसकी सेवा का भार अधिकतर उन्हीं दोनों पर था। उनकी संगिनी हो गयी थी। दोनों खाकर उठतीं, तो एक-एक टुकड़ा रोटी उसे अपने हाथों से खिलातीं। कैसा जीभ निकालकर खा लेती थी, और जब तक उनके हाथ का कौर न पा लेती, खड़ी ताकती रहती। भाग्य फूट गये! सोना और गोबर और दोनों लड़कियाँ रो-धोकर सो गयी थीं। होरी भी लेटा। धनिया उसके सिरहाने पानी का लोटा रखने आयी तो होरी ने धीरे से कहा -- तेरे पेट में बात पचती नहीं; कुछ सुन पायेगी, तो गाँव भर में ढिंढोरा पीटती फिरेगी। धनिया ने आपत्ति की -- भला सुनूँ; मैंने कौन-सी बात पीट दी कि यों नाम बदनाम कर दिया।

'अच्छा तेरा सन्देह किसी पर होता है। '
'मेरा सन्देह तो किसी पर नहीं है। कोई बाहरी आदमी था। '
'किसी से कहेगी तो नहीं? '
'कहूँगी नहीं, तो गाँववाले मुझे गहने कैसे गढ़वा देंगे। '
'अगर किसी से कहा, तो मार ही डालूँगा। '
'मुझे मारकर सुखी न रहोगे। अब दूसरी मेहरिया नहीं मिली जाती। जब तक हूँ, तुम्हारा घर सँभाले हुए हूँ। जिस दिन मर जाऊँगी, सिर पर हाथ धरकर रोओगे। अभी मुझमें सारी बुराइयाँ ही बुराइयाँ हैं, तब आँखों से आँसू निकलेंगे। '
'मेरा सन्देह हीरा पर होता है। '
'झूठ, बिलकुल झूठ! हीरा इतना नीच नहीं है। वह मुँह का ही ख़राब है। '
'मैंने अपनी आँखों देखा। सच, तेरे सिर की सौंह। '
'तुमने अपनी आँखों देखा! कब? '
'वही, मैं सोभा को देखकर आया; तो वह सुन्दरिया की नाँद के पास खड़ा था। मैंने पूछा -- कौन है, तो बोला, मैं हूँ हीरा, कौड़े में से आग लेने आया था। थोड़ी देर मुझसे बातें करता रहा। मुझे चिलम पिलायी। वह उधर गया, मैं भीतर आया और वही गोबर ने पुकार मचायी। मालूम होता है, मैं गाय बाँधकर सोभा के घर गया हूँ, और इसने इधर आकर कुछ खिला दिया है। साइत फिर यह देखने आया था कि मरी या नहीं। धनिया ने लम्बी साँस लेकर कहा -- इस तरह के होते हैं भाई, जिन्हें भाई का गला काटने में भी हिचक नहीं होती। उफ़्फ़ोह। हीरा मन का इतना काला है! और दाढ़ीजार को मैंने पाल-पोसकर बड़ा किया।
'अच्छा जा सो रह, मगर किसी से भूलकर भी ज़िकर न करना। '
'कौन, सबेरा होते ही लाला को थाने न पहुँचाऊँ, तो अपने असल बाप की नहीं। यह हत्यारा भाई कहने जोग है! यही भाई का काम है! वह बैरी है, पक्का बैरी और बैरी को मारने में पाप नहीं, छोड़ने में पाप है। '
होरी ने धमकी दी -- मैं कहे देता हूँ धनिया, अनर्थ हो जायगा। धनिया आवेश में बोली -- अनर्थ नहीं, अनर्थ का बाप हो जाय। मैं बिना लाला को बड़े घर भिजवाये मानूँगी नहीं। तीन साल चक्की पिसवाऊँगी, तीन साल। वहाँ से छूटेंगे, तो हत्या लगेगी। तीरथ करना पड़ेगा। भोज देना पड़ेगा। इस धोखे में न रहें लाला! और गवाही दिलाऊँगी तुमसे, बेटे के सिर पर हाथ रखकर। उसने भीतर जाकर किवाड़ बन्द कर लिये और होरी बाहर अपने को कोसता पड़ा रहा। जब स्वयम् उसके पेट में बात न पची, तो धनिया के पेट में क्या पचेगी। अब यह चुड़ैल माननेवाली नहीं! ज़िद पर आ जाती है, तो किसी की सुनती ही नहीं। आज उसने अपने जीवन में सबसे बड़ी भूल की। चारों ओर नीरव अन्धकार छाया हुआ था। दोनों बैलों के गले की घण्टियाँ कभी-कभी बज उठती थीं। दस क़दम पर मृतक गाय पड़ी हुई थी और होरी घोर पश्चात्ताप में करवटें बदल रहा था। अन्धकार में प्रकाश की रेखा कहीं नज़र न आती थी।

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